Friday, February 4, 2011

अधरों के बोल

मेरी प्रकृति है सदा
झील के समान
कोमल, शांत, स्वछन्द
मेरे अधरों के बोल
सदा से रहे हैं सीमित
ना कोई छुपाव रहा है इनमें
ना ही बनावटी का भार
एक चुप्पी सी साधे
सदा से ही रहे हैं होंठ मेरे
कंपकंपा जाते हैं अक्सर
चुप्पी साधे यह होंठ मेरे
दुनिया खफां हो जाती है
देख इस खामोश चेहरे को मेरे
ऑंखें आंसूयों में भीगकर
व्याकुल हो उठती हैं बार-बार मेरी
देख दुनिया के इस बर्ताव को
मेरी इस खामोश प्रकृति के
सुन अधरों के बोलों को
आज दुनिया भी-
मुझसे खफा हो रही है मेरी ! 

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