Friday, February 4, 2011

कल्पना

कल्पना
मिल चुकी है खाक में
आज मेरी इस तरह
जैसे सूखे पत्ते
चुरमुर - चुरमुर करते हुए
बिखर कर खोये से
प्रथ्वी पर लीन पड़े हों
हवाओं के साथ बार -बार
अपनी मंजिल को पा लेने को
एक बार फिर से
इधर -उधर भटक रहे हैं
मेरी नन्ही सी फूलों जैसी
छोटी सी कल्पना
बहुत खूबसूरती में
ढलते हुए सौंदर्य का प्रतीक थी
पर -
वह जानदार होते हुए भी
बेजान थी !

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