चाह नहीं, मैं देह के
बंधन में बांधी जाऊं
चाह नहीं तुम्हारा प्रेम बन
गले की घंटी बन जाऊं
चाह नहीं, तुम्हारी बाँहों का
सहारा बन कदम बढाऊं
चाह नहीं, अपना प्रेम इज़हार कर
अपने भाग्य पर इठलाऊं
चाह नहीं, अपने दामन में
खुशियों की गाथा भर लाऊं
चाह नहीं तुम्हारे आगोश में
सिर रख मर जाऊं
चाह नहीं, अपनी इच्छाओं को पूराकर
वासना का पुतला कहलाऊं
चाह नहीं, तुम्हरी दौलत को पा
अपना वजूद खो बैठूं
चाह नहीं, बहुपोश में बंध तुम्हारे
मैं मन ही मन रिझाऊं
चाह नहीं, मायाजाल में फंस तुम्हारे
प्यार को अपने कलंकित करवाऊं
चाह नहीं अर्थी को कफ़न से ढक
चिता पर लकड़ियों की सेज संजाऊं
चाह नहीं शरीर को छू कर तुम्हारे
मैं अपना जनाज़ा निकलवाऊ
चाह है अब, तुम्हारी पग्धूली से
अपनी मांग सजा लूँ
चाह है अब, जीवन की अंतिम सांसें
तुम्हारे चरणों में अर्पित कर दूँ !
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