बरबस रो पड़ती मेरी आँखों
के आगे सूनापन अथाह
शत -शत असफलताओं से है
अभिशापित मेरा मस्तक नत
कितने यत्नों से पाल रही
मैं अपने पागल प्राण अरे
जिसके सपने हो चुके यहाँ
कौन जाने कब के क्षत -विक्षत
उस गहरे नीले आसमान
पर चढ़ने की कोशिश करना
फिर भरकर चीत्कार प्रखर
अपनी हस्ती को बिखरना
वह दूर क्षितिज, धुंधला अशांत
वैसे ही जैसे मेरा मन
यह बोझिल - सा कांपता पवन
वैसे ही जैसे मेरा पग
अपनी गहराई में सीमित
हिलोरे लेता हुआ जलधि
जब - तब भर उठता है कराह
जैसे मेरे सपनों का जग
मैं थकी हुई, मैं जीवन हारी
मैं नत -मस्तक, मैं जीर्ण -शीर्ण
विस्तृत जग के इस कोने में
अपने ही से दूर विलग
नित्य के इस मुरझाये मुख पर
युग - युग के खोये हुए
भावना - हीन, चेतना - हीन
गंभीर, मौन, स्थिर, सहमे से
नयन प्रायः हो जाते हैं बरबस
जैसे प्रतिपल धुंधला पड़ता अम्बर
मैं पूछ रही हूँ बोझिल सी
मैं क्या हूँ ? क्या अस्तित्व्य यहाँ ?
यह बनना और बिगड़ना क्या ?
सृष्टी का अनोखा खेल यह क्या ?
क्यों इतना दुःख ? इतनी करुणा ?
क्यों है प्राणों में एक कसक ?
मैं पूछती हूँ तुमसे नत - मस्तक
असहाय, हतप्रभ, विवश, जर्जर !
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