Friday, January 14, 2011

एकात्म



सदियाँ गुजर जाएँगी
लोग-
अपनी-अपनी बोलियों का
राग अलाप कर
छोड़ जायेंगे यह जहाँ तन्हा
पर-
मेरी रूह को ना कर सकेगा
कोई तुमसे जुदा
प्रकृति का कठोर प्रहार भी
सहकर भी
तेरे ही रग-रग में डूब
मैं बन बाती
तू बन दीप
डूबे रहेंगे सदा
सृष्टि के इस भीषण काल में
मैं और तुम
एक डोर में
बंधे रहेंगे सदा
तेज हवाओं का बवंडर
गर आया भी -
एक तूफान बनकर
ना कर सकेगा
कभी तुमसे दूर
तुम्हरी छवि से भी दूर
हमारी रूहें डूबी रहेंगी
एक दूजे में सदा
इसी तरह -
एक दीप-बाती बनकर !

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