जख्मों में लिपटकर
पीड़ा से कराह रही हूँ
तेरा प्यार पाने को
मैं कब से भटक रही हूँ
दुखों के सागर में डूबकर
पाक समाधी पर अपनी
कब से तेरा इन्तजार कर रही हूँ
श्वेत वस्त्रों में लिपटी हुई
हाथ पसारे आज अपने
मैं आवाज़ देकर तुम्हे बुला रही हूँ
देर ना करो अब इतनी
भोर हो रही है
देख ना ले कोई मुझको
समाधी से उठते हुए
हाथों में चिराग लिए
पथ पर रौशनी फैलाये
निगाहें एकटक किये
कब से मैं तुम्हे बुला रही हूँ !
No comments:
Post a Comment