Monday, January 31, 2011

क्या जीवन इसी को कहते हैं ?


क्या जीवन इसी को कहते हैं ?
चारों तरफ रुदन का हो क्रंदन
सृष्टी का हो बंधन
दुविधा का हो विस्तार
महत्वाकांक्षाओं का हो उन्माद
हुआ जिसमें मुझको तेरा आभास
उठा उचे बनकर उत्साह
कसक होती गई थी विस्तृत
ना रुक सकी सरिता की लहर
पागल बनकर यह उन्माद
परिस्थितियों की विस्तृत परिधि में
चला आया था तेरे पास
कसक का ना था कोई अंत
हुआ क्षणिक भर का उल्लास
ह्रदय में समा गया आंतक
बन गया यह जीवन भार
कोई नहीं था मेरे पास
मैं हो गई दुनिया से दूर
तिल-तिलकर मर-मर जीने को
हो गई मैं बेबस मजबूर
मैं भोली नादान ना जान सकी
अब तक सृष्टी का रूपांतर
मजबूर हो गई सोचने पर
क्या जीवन इसी को कहते हैं ?

No comments:

Post a Comment