Thursday, February 3, 2011

निशब्दता

आज
मैं बैठ अकेली
कल्पना कर रही थी
अपने भावी जीवन के
सपने संजो रही थी
एक छोटा सा कल्पना में
घरोंदा बना रही थी
अचानक-
आकाश में भयंकर गर्जना हुई
एक तेज रौशनी की सफेद लकीर खिंच गई
कहीं दूर बिजली टूट पड़ी
मेरे सपनों का महल बिखर गया
कल्पना अधूरी बनकर रह गई
मेरे सपनों का घरोंदा टूट कर बिखर गया
मैं बेजान निशब्दता में डूब बिखर गई !

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